ओ दुख के बंदी!जंग तेरी ख़ुद से हैग़ैरों पे मंजर क्यूँ लाता हैं?दर्द तेरे सीने में है फिर ज़िक्र ज़ुबान पे क्यूँ आता है?है गहरा अंधेरा छाया जोहै संसार अभी भी वहीं का वहींये तो समय का दर्पण है , ये तेरा वजूद नहीतूने सोचा होगा वोही जो हमेशा होता आया सोच नश्वर इंसान ज़रा... Continue Reading →